वरमाण। मथुरा से द्वारका जाते समय भगवान कृष्ण ने स्वयं अपने हाथों से रोपित किया था कृष्णवट वृक्ष! ऐसी मान्यता है जैसा कि बुजुर्ग ग्रामीणों द्वारा बताया गया हैं।
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आज विश्व प्रकृति संरक्षण दिवस पर गांवों का संगी पर्यावरण संरक्षण पर विशेष कवरेज दे रहा हैं।
हमारी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता काफ़ी उन्नत थी। उस समय पर्यावरण संरक्षण के प्रति काफ़ी जागरूक थे हमारे पूर्वज। हमारे पूर्वजों द्वारा पर्यावरण संरक्षण एवं विज्ञान को धर्म एवं संस्कृति के साथ जोड़कर पर्यावरण को बचाने की कोशिश की थी। चाहे फिर बात वृक्षों के संरक्षण की या फ़िर पहाड़, नदी, नाड़ी, गौचर और गौवंश के संरक्षण की। आधुनिक युग में हम लोग आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में सब कुछ तबाह कर रहे हैं।
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कृष्णवट वृक्ष वरमाण गांव से करीब दो किलोमीटर की दूरी पर आया हुआ हैं। वहां जाने पर वाक़ई आपकों आनंद आएगा। प्रकृति से मेलजोल बिठाने का अवसर मिलेगा। मन को सुख एवं शांति की अनुभूति अवश्य होगी। चिड़िया, मोर, कोयल एवं तोते सहित कई पक्षियों की मधुर ध्वनि आपके कर्ण को संगीतमय वातावरण में खो देगा। आपकों वहाँ कुछ पल बैठने की लालसा अवश्य ही पैदा होगी। वहाँ बिखरी पड़ी ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व की धरोहर भी आपकों अपनी ओर आकर्षित करेगी।
कृष्णवट भारत के कुछ भागों में पाये जाने वाले एक विशेष प्रकार के बरगद के वृक्ष को कहा जाता है। इसके पत्ते मुड़े हुए होते हैं। ये देखने में दोने के आकार के होते हैं। कृष्णवट के पत्तों में दूध, दही, मक्खन आदि खाद्य पदार्थों का आसानी से सेवन किया जा सकता है।
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पौराणिक मान्यता
वरमाण के इस कृष्णवट वृक्ष के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि भगवान कृष्ण द्वारा स्वयं इसे रोपित किया गया था। जब भगवान कृष्ण मथुरा से द्वारका जा रहे थे। उस समय उनके द्वारा यहाँ इस जगह रात्रि विश्राम किया गया था। सुबह भगवान कृष्ण द्वारा एक वट वृक्ष की टहनी से दातुन-मंजन किया गया था। दातुन-मंजन करने के बाद जब टहनी का कुछ भाग शेष बच गया, तब उनके द्वारा उस शेष बची टहनी को इसी जगह रोपित कर दिया गया था। जिसने बाद में बड़े वट वृक्ष का रूप ले लिया हैं। जो कृष्णवट वृक्ष के नाम से जाना जाता हैं। जो करीब सात बीघा भूमि में फैला हुआ हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसे कृष्णवट वृक्ष का संरक्षण किया जाए। साथ ही वहाँ बिखरी पड़ी ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व की संपदा का भी संरक्षण किया जाए।
शोध कार्य
कृष्णवट पर कुछ विदेशी वनस्पति शास्त्रियों ने शोध भी किया है। 1901 में कैंडोल ने इसका अध्ययन करने के बाद इसे सामान्य बरगद से अलग एक विशिष्ट जाति का वृक्ष माना और इसे कृष्ण के नाम पर वैज्ञानिक नाम दिया- ‘फ़ाइकस कृष्णीसी द कंदोल’, किंतु विख्यात भारतीय वैज्ञानिक के. विश्वास इसका विरोध करते हैं। उनका मत है कि कृष्णवट एक अलग जाति का वृक्ष नहीं है। यह बरगद की ही एक प्रजाति है।
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ग्रामीण केसर सिंह देवड़ा एवं प्रकाश गर्ग के अनुसार यहाँ इस कृष्णवट वृक्ष के नीचे ही भगवान (विष्णुजी)कृष्ण एवं राधा जी का मंदिर बना हुआ था। भारत में आए विधर्मी आक्रमणकारियों द्वारा इस मंदिर को तोड़कर तहस नहस कर दिया गया था। उन विधर्मी आक्रमणकारियों द्वारा हमारी संस्कृति को काफ़ी नुकसान पहुंचाया गया। आज इनके संरक्षण की सख्त आवश्यकता हैं।